हर दौर में मज़हब, समाज को एक–दूसरे से जोड़कर रखने का जरिया रहा है। दौर–ए–जदीद में कोई उतार–चढ़ाव आए फिर भी मज़हब का अपना एक अलग ही मकाम है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि मज़हब के नाम पर उठने वाले और तहरीके चलाने वालों में बहुत से ऐसे थे जिन्होने या तो अपने मफ़रात की खातिर जान बुझाकर मजहबी तालीमात को मन माने ढंग से पेश किया और बड़ी तादाद में सादा दिल आवाम उनका शिकार हुई। लेकिन एक कीमती पहलू यह भी है कि ऐसी सूरत–ए–हाल का मुकाबला करने के लिए ऐसे बड़े–बड़े विद्वान और उलेमा सामने आए और उन्होने मज़हबी तालीमात की असली हक़ीक़त पेश की और आज यह सच्चाई समाज, इंसान और इंसानियत की तरक्की का सबब बनी हुई है।
और यह सब कुछ दीगर मजाहिब के साथ–साथ इस्लाम के मानने वालों में भी हुआ चूंकि इस्लाम ने कभी भी दौर–ए–जदीद के किसी भी सही तरीके को नहीं नकारा और जब इस बात को सही तरीके से औलामाओं व दानिश्वरों ने पेश किया तो इसला फायदा भी मिला और कुरान की असली तालीम को अब खुद मुस्लिम ख्वातिन भी काफी हद तक समझ चुकी हैं। अब तो खुद मर्द भी अपनी बहन–बेटियों को ऊँची तालीम दिलाने में मददगार साबित हो रहे हैं।
लेकिन न जाने क्यों इस्लाम के बारे में एक ऐसी सोच उभर कर सबके सामने आई कि इस्लाम का दौर–ए–जदीद से दूर–दूर तक का वास्ता नहीं है जबकि इस्लाम का असली मक़सद ही अल्लाह की इबादत करते हुए तालीम व कमयाबियाँ हासिल करना है। कुरान ने तो औरत और मर्द को बराबर के हक़ दिये हैं। औरत को भी वह हक़ है जो उसको एक इज्ज़त की ज़िंदगी देती है और साथ ही आला तालीम के लिए उभरती है। कुरान की सुरे निसा में खास तौर से ऐसी आयतें हैं जो ख्वातिन के हक़, हमदर्दी और अच्छे सुलूक की पैरवी करती है। खुद अल्लाह के रसूल की कई हदीसे मौजूद है जो ख्वातिन की हिमायत में है और मोहम्मद साहब की कही हुई बातें पूरा मुस्लिम समाज मानता है।
खुद मोहम्मद साहब ने अपनी ज़िंदगी में ख्वातिन के साथ जो सुलूक किया है वह अपने आप में एक मिसाल है। क्या मुस्लिम समाज यह नहीं जानता के मोहम्मद साहब की पहली बीवी कितनी बड़ी ताजिर (व्यापारी) थी आपकी एक बीवी हज़रत आयशा एक बड़ी विद्वान थी।
लेकिन यह भी सही है कि काफी वक़्त तक मुस्लिम ख्वातिन अपने हुकूक पाने में नाकाम भी थीं मगर अब यह बहस छिड़ चुकी है कि दौर–ए–जदीद में क्या इस्लाम औरतों को उनकी आज़ादी, घर से बाहर निकल कर काम करने की छूट देगा और कुरान ने उनको जो हक़ दिया है क्या वह उनको पाने की हकदार है या नहीं। लेकिन इस बहस में शामिल ज़्यादातर उलेमा का रवैया व नज़रिया कबील–ए–तारीफ न रहा और इसकी एक बड़ी वजह खुद इस्लाम के उलेमा का रवैया रहा है क्योंकि वह कुरान व इस्लाम की सही तशरीह ही नहीं करते।
कुछ लोगों ने दौर–ए–जदीद को इस्लाम के खिलाफ समझा लेकिन फिर वह उलेमा भी सामने आए जो दौर–ए–जदीद को इस्लाम के खिलाफ नहीं समझते और वह इस बात की तह तक पहुंचे की दौर–ए–जदीद इस्लाम के खिलाफ नहीं हैं। उलेमा की ऐसी किताबें सामने आई जिनसे पढे–लिखे लोगों में यह समझ पैदा हुई के दौर–ए–जदीद की बुराइयाँ ही सब कुछ नहीं है बल्कि जदीद दौर हक़ीक़त में नए वसाईल नई तकनीक और नए मेकेनिज़्म के जरिए इन्सानो की ज़िंदगी में सहूलियतें पैदा करता है और मादरे में छुपी हुई बेपनाह कुव्वतों को इस्तेमाल करने के तरीके नए दौर के इन्सानों ने सीखे तब तो हर घर में रोशनी आई इन्सानो को कच्ची सड़कों से निजात मिली बीमारियों पर काबू पाने के लिए चिकित्सा विज्ञान में इतनी तरक्की हुई कि जिसका तसव्वुर नहीं किया जा सकता था। नई सवारियाँ, हजारों किलोमीटर दूर रहने वाले इन्सानों से राब्ता कायम करने के नए तरीके यह सब दौर–ए–जदीद की देन है।
मगर एक अफसोस नाक बात यह है कि लंबे अरसे तक दौर–ए–जदीद को अँग्रेजो की नफरत से जोड़ दिया गया और उनकी आजाद ज़िंदगी और मर्द और औरत की हद से बढ़ी हुई मख़लूक़ ज़िंदगी को दौर–ए–जदीद का हिस्सा समझकर उसे समझने की कोशिश भी नहीं की। मगर जैसे–जैसे असरी तालीम को हासिल करने वाले बढ़ते चले गए और असली तालीम के तमाम फायदे हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गए। यह एक फितरी मामला था कि बच्चों को जदीद स्कूल और कॉलेजों में तालीम दिलाने वालो की तादाद बढ़ती चली गई और फिर वह वक़्त भी आया जब पूरी एहतियात के साथ वालदेन ने अपनी बेटियों को भी जदीद तालीम के लिए स्कूल और कॉलेजों में तालीम हासिल करने को ज़िंदगी की तरक्की का एक जरिया समझा। पहले मॉडर्न का लफ़्ज़ बोलने से ही वहशत होती थी जबकि उसका मतलब सिर्फ नई और जदीद चीजें थी। अब सब भूलकर हम आसानी से स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी की तालीम ले लेते हैं। और किसी के भी दिमाग में भी नहीं आता कि इस जदीद तालीम की शुरुआत उन मगरिबी लोगों ने की थी जो कभी हमारे दुश्मन थे।
लेकिन हमे यह भी जहन में रखना चाहिए कि बड़ी तादाद मुसलमानों में अब भी ऐसी है जो जदीद तालीम से दूर हैं। जिसके लिए कई समाजी तंजीमे ऐसी हैं जो इस कोशिश में लगी हुई है कि मुस्लिम ख्वातिन के दिमाग से जदीद तालीम को गुमराही समझने का नुकसान खत्म हो और यह कोशिशे इतनी आगे बढ़ गई है कि दीनी मदारिस के उलेमा भी खुद अपने स्कूल, कॉलेज चला रहे हैं जिसकी एक बड़ी मिसाल मौलाना गुलाम अहमद–दस्तान्वी साहब की है जो मशहूर आलिम हैं। मगर वह स्कूल व कॉलेज भी चला रहे हैं जहाँ लड़कियों के कयाम के लिए अच्छा हॉस्टल भी फराहम है। उम्मीद है कि जल्द ही वह वक़्त आएगा जब लड़कों के साथ–साथ लड़कियां भी रिसर्च के मैदान में दाखिल होगी जिसमें अभी बहुत पीछे हैं।